हमारे स्कूलों और उच्च शिक्षा में काफी लंबे समय से नैतिकता के पाठ इस लिहाज के साथ रखे जा रहे हैं जिससे की हमारी आने वाली पीढ़ी अपनी जिम्मेदारी समझे और उसका निर्वहन करे।
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अब तक की शिक्षा प्रक्रिया में इसे पुराने तरीके से यानी भाषण और किताबों के माध्यम से सिखाने की कोशिश की गई है।
लेकिन नई शिक्षा नीति इसको गतिविधियों के माध्यम से सिखाने पर बल देती है। जो कि राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा पिछले लगभग 30 सालों से कहता रहा है।
मै पिछले 2 वर्षों से और हमारे जैसे कई संस्थानों के लोग इन प्रयोगों को वर्षों से करते आ रहे हैं लेकिन इस तरह के प्रयोग कितने सफल हुए हैं यह एक शोध का विषय है। मैं ये ज़रूर कह सकता हूं कि ये प्रयोग पूरी तरह से असफल नहीं रहे हैं। लेकिन मै ये कतई नहीं कहूंगा कि ये सफल हैं।
इस दौरान मुझे एक अनुभव ये हुआ है कि मनुष्य को अपनी नैतिक जिम्मेदारी तब समझ आती हैं जब उसे अपने तुक्षता का एहसास होता है।
जिस क्षण हमें अपनी अक्षुण्णता का एहसास होता है।
हमें अपनी सारी नैतिक जिम्मेदारियां स्वयं समझ में आ जाती हैं।
अतः मेरे अंतर्मन में पिछले कई महीनों से ये विचार चल रहा है कि हम किस तरह से पाठ्यक्रम में इस अक्षुण्णता के एहसास को समाहित करें जिससे कि उसके नकारात्मक प्रभाव पीढ़ियों पर प्रभावी ना हों। परन्तु पीढ़ियों को अपनी अक्षुण्णता का एहसास हो जाए, और उन्हें ये समझ आ जाए कि मनुष्य भी इस धरा पर सिर्फ उतने का अधिकारी है जितने कोई भी एक छोटे से छोटा प्राणी।
जिस वक्त हमारी समस्त मानव जाति को ये एहसा
स हो जाएगा, वही वो क्षण होगा जब हम इस पृथ्वी को नष्ट होने से रोक पाने के लिए पहला कदम बढ़ा रहे होंगे।
#birdflue

